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तय न हो पाया कि / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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तय न हो पाया कि चुम्बन वासना या प्यार!
प्यार ने स्वीकार कर ली काँच की दीवार!

आह से धूमिल न होगा पारदर्शी रूप,
मेघमाला से ढलेगी इन्द्रधनुषी धूप,

तृप्ति के सर पर लटकती दूधिया तलवार!
प्यार ने स्वीकार कर ली काँच की दीवार!

होंठ पर हैं होंठ, करतल करतलों के पास,
भित्ति-चित्रों में मुखर है प्रीति का संत्रास,

यूँ लगे, जैसे किनारे पर खड़ी मझधार!
प्यार ने स्वीकार कर ली काँच की दीवार!

जानता है कौन, हम किस कन्दरा में लीन,
गन्ध है बेहोश, ऐसी बज रही है बीन,

हम उतर आये अतल में, क्षीर सागर पार!
प्यार ने स्वीकार कर ली काँच की दीवार!