भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिन गुज़रते गये, रात होती रही / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=हर सुबह एक ताज़ा गुलाब / …)
 
पंक्ति 20: पंक्ति 20:
  
 
लाख थी बोलने की मनाही, गुलाब!
 
लाख थी बोलने की मनाही, गुलाब!
भेंट फिर भी ये सौगात होती रही
+
भेंट फिर भी ये सौग़ात होती रही
 
<poem>
 
<poem>

08:46, 2 जुलाई 2011 का अवतरण


दिन गुज़रते गये, रात होती रही
ज़िन्दगी खुद-ब-खुद मात होती रही

प्यार की कोई खुशियाँ मनाता रहा
और आँखों से बरसात होती रही

हम ग़ज़ल में उसीको उतारा किये
टीस-सी दिल में जो, रात, होती रही

हमने देखी न उनकी झलक आजतक
और हरदम मुलाक़ात होती रही

लाख थी बोलने की मनाही, गुलाब!
भेंट फिर भी ये सौग़ात होती रही