भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दू मुक्तक / कुबेरनाथ मिश्र 'विचित्र'

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:26, 7 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुबेरनाथ मिश्र 'विचित्र' |अनुवादक...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रउआँ अइतीं त अँगना अँजोर हो जाइत।
हमार मन बाटे साँवर ऊ गोर हो जाइत।
जवन छवले अन्हरिया के रतिया बाटे।
तवन रउरी मुसुकइला से, भोर हो जाइत।।

जवना सरसों से भूतवा झराए के बा।
भूत ओही सरसउआ में घूसल बाटे।
जवना नेता के दुखवा सुनावे के बा।
लोग ओही के चमचा के चूसल बाटे।।