भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धूप का विरान मरु-वन : मेघपंखी साँझ / योगेन्द्र दत्त शर्मा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:30, 15 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेन्द्र दत्त शर्मा |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नीम के पत्ते नहीं हिलते!

शून्य के अंतिम सिवाने पर
फिर उदासी बुन रहा मौसम
टूटने को ही नहीं आता
डालियों के टूटने का क्रम

हरसिंगरी गंध मुरझाई
फूल शाखों पर नहीं खिलते!

धूप के वीरान मरु-वन में
मेघपंखी सांझ फिर भटकी
लौटकर आये नहीं पंछी
घोंसलों की सांस है अटकी

इन थमी, सहमी हवाओं में
चैन के दो पल नहीं मिलते!

आज तक भी थरथराता है
आंख के आगे वही चेहरा
छोड़ आये थे बहुत पीछे
हम जिसे डूबा हुआ गहरा

जख्म जो पिछले पड़ावों पर
छिल गये, वे अब नहीं सिलते!