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पाँव छलनी हो, पथ में अटकते रहे / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
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पाँव छलनी हो, पथ में अटकते रहे
फूल भी शूल बनकर खटकते रहे
उठ के ऊपर, गगन को न हम छू सके
बन त्रिशंकु अधर में लटकते रहे
याद आती रही दुश्मनों की हमें
दोस्त दामन को जब-जब झठकते रहे
संगदिल का पिघलना न संभव हुआ
रोज़ चौखट पे सर को पटकते रहे
दम बहारों में भरते थे जो प्यार का
वो ख़िज़ाओं में छुप कर सटकते रहे
ज़िन्दगी भर न दीदार हासिल हुआ
दर-ब-दर हम जहाँ में भटकते रहे
देश सेवा के पर्दे में नेता कई
मुफ़्त का माल हरदम गटकते रहे
शोख़ सैयाद गुलशन के माली बने
बाग़बां सब ‘मधुप’ राह तकते रहे