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प्रथम अध्याय / द्वितीय वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः ।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति अणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात् ॥ ८ ॥

सूक्षातिसूक्ष्म है आत्म तत्व तो, तर्क से भी अतीत है,
विज्ञेय केवल ज्ञानियों से, ऋत जिन्हें अनुभूति है।
यह तो प्रकृति पर्यंत और ज्ञातव्य न अल्पज्ञ से,
फ़िर आत्म तत्व के ज्ञान बिन, कैसे मिलें सर्वज्ञ से॥ [ ८ ]

नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ ।
यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि त्वादृङ्नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा ॥ ९ ॥

नचिकेता प्रिय प्रज्ञा तुम्हारी, देख कर मन मुदित है,
जो तर्क से प्रायः परे, मिले प्रभु कृपा से विदित है।
अति अडिग दृढ़ श्रद्धा तुम्हारी, सब प्रलोभन से परे,
तुम सा जिज्ञासु मिले तो, आत्म ज्ञान कथित करें॥ [ ९ ]

जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत् ।
ततो मया नाचिकेतश्चितोऽग्निः अनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम् ॥ १० ॥

मैं जानता हूँ, कर्म फल निधि, भोग सारे अनित्य हैं,
नहीं अनित्य से नित्य सम्भव, तथ्य सत्य अचिन्त्य हैं।
नाचिकेता अग्नि का, किया चयन , निः स्पृह वृति से,
ब्रह्म मिल सकता है केवल, निरासक्ति प्रवृति से॥ [ १० ]

कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां क्रतोरानन्त्यमभयस्य पारम् ।
स्तोममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा धृत्या धीरो नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः ॥ ११ ॥

इस विश्व के विश्वानि वैभव, धन व श्री सुख संपदा,
से वृति तुम्हारी विरत निःस्पृह अनासक्त सदा सदा।
वेदों में जो स्तुत्य सुख का, वृहत वर्णन वृहद है,
इनके प्रति शुचि त्याग वृति, तुम्हारी दुर्लभ सुखद है॥ [ ११ ]

तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम् ।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति ॥ १२ ॥

सबके ह्रदय की गुफा में , प्रभु सर्व व्यापी व्याप्त हैं,
वह योग माया के आवरण में, है छिपा नहीं ज्ञात है।
जग गहन दुर्गम विपिन सम, सत्ता अगोचर की महे,
जो धीर साधक सतत चिन्तक, वे हर्ष शोक नहीं गहें॥ [ १२ ]

एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य ।
स मोदते मोदनीयँ हि लब्ध्वा विवृतँ सद्म नचिकेतसं मन्ये ॥ १३ ॥

सुनकर ग्रहण मानव करे, आध्यात्म के उपदेश को,
फ़िर तत्वमय चिंतन करें,ऋत आत्म तत्व प्रवेश को।
आनंद में ऋत ज्ञान के ज्ञानी वही तल्लीन हो,
नचिकेता अधिकारी हो तुम, ऋत ब्रह्म ज्ञान प्रवीण हो॥ [ १३ ]

अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मा- दन्यत्रास्मात्कृताकृतात् ।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद ॥ १४ ॥

वह कार्य कारण रूप जग से,ब्रह्म भिन्न अतीत है,
वर्तमान , भविष्य, भूत से, ब्रह्म कालातीत है।
धर्म और अधर्मातीत है, वह ब्रह्म आप ही जानते,
नचिकेता पुनि -पुनि विनत वद, यदि पात्र मुझको मानते॥ [ १४ ]

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपाँसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदँ संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ॥ १५ ॥

जिस परम पद का वेद पुनि -पुनि कथन प्रतिपादन करें,
सम्पूर्ण तप जिस परम पद का लक्ष्य और साधन करें।
जिसके लिए ही ब्रह्मचर्य का, कठिन व्रत साधक करे,
वह परम तत्व है "ॐ " अक्षर महत उद्धारक नरे॥ [ १५ ]

एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम् ।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ॥ १६ ॥

यह "ॐ " अक्षर प्रणव अक्षय, ब्रह्म का ही स्वरूप है,
यही परम पुरुषोत्तम जनार्दन, परम ब्रह्म अनूप है।
ब्रह्म और परब्रह्म का ही, नाम तो ओंकार है,
ऋत तत्व साधक को सुलभ, परब्रह्म दोनों प्रकार है॥ [ १६ ]