भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बैठे कहाँ रूठ के ब्रजधाम बसैया / बिन्दु जी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:19, 18 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बिन्दु जी |अनुवादक= |संग्रह=मोहन म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बैठे कहाँ रूठ के ब्रजधाम बसैया।
दिखला दो दरस अब तो हे ब्रजराज कन्हैया।
है कितनी शर्म गर आनंद उपजाओ न करुनाकर।
पुकारें तुमको और दीन तुम आओ न करुनाकर।
अधम तारे हजारों तुमने लेकिन हमे तारो तो।
तो करुणासिंधु हो भवसिंधु से हमको उबारो तो।
देखें तो भूले कैसे हो हमें गिरवर के उठैया॥
तुम्हारे हर कदम पर हम अपनी आँखें बिछा देंगे।
जो आओगे हमारे पास तो दिल में बिठा लेंगे।
मगर ऐसा न हो यह प्रार्थना बेकार हो जाए।
दिखादो यह झलक अपनी की देदा पर हो जाए।
देख लो यह विनय ‘बिन्दु’ कि फरियाद सुनैया।
दिखला दो दरस अब तो हे ब्रजराज कन्हैया।