भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भालू भी कानै छै / दिनेश बाबा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:31, 11 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश बाबा |अनुवादक= |संग्रह=हँसी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखैं एक मदारी ऐलै
खेत रोॅ आरी-आरी ऐलै
साथोॅ में भालू छै एक
खेल तमाशा करै अनेक
डिम-डिम-डिम-डिम बाजै डमरू
खेल देखै लेॅ जुटलै बुतरू
खेल तमाशा करै मदारी
घुरी फिरी केॅ द्वारी द्वारी
कोय चूड़ा-गुड़ कोय दै धान
होय जाय छै होकरो जलपान
लोगें कहाँ ई जानै छै
अकि भालू भी कानै छै
वें नैं केकर्हौ नोचै छै
पता नैं की की सोचै छै
मतर गुलामी सें पीड़ित वें
लोर आँख रोॅ पोछै छै