भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुफ़लिसी में दिन बिताते हैं यहाँ / मृदुला झा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:58, 30 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुला झा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिर भी सपने हम सजाते हैं यहाँ।

मज़हबी बातें उठाकर लोग कुछ,
आपसी झगड़ें बढ़ाते हैं यहाँ।

दूसरों के ग़म को हैं कम आँकते,
अपने गम में छटपटाते हैं यहाँ।

झूठी बातों का ढिंढोरा पीट कर,
सच से कैसे मुँहे छुपाते हैं यहाँ।

ज़िन्दगी भर साथ रह कर भी अलग,
इस तरह से भी निभाते हैं यहाँ।

अपना कैसा हाल है जाने नहीं,
लोग सब पर मुस्कराते है यहाँ।