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"मेरा नया बचपन / सुभद्राकुमारी चौहान" के अवतरणों में अंतर

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बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
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गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥ 
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
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चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
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कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद? 
  
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।<br>
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ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥<br><br>
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बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥ 
  
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।<br>
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किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?<br><br>
+
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥ 
  
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?<br>
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रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥<br><br>
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बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥ 
  
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।<br>
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मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥<br><br>
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झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥ 
  
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।<br>
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दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥<br><br>
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धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥ 
  
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।<br>
+
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥<br><br>
+
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥ 
  
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।<br>
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लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥<br><br>
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तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥ 
  
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।<br>
+
दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥<br><br>
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मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥ 
  
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।<br>
+
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥<br><br>
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अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥ 
  
दिल में एक चुभन-सी भी थी यह दुनिया अलबेली थी।<br>
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सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥<br><br>
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प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥ 
  
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।<br>
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माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥<br><br>
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आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥ 
  
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।<br>
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किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥<br><br>
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चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥ 
  
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।<br>
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आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥<br><br>
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व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥ 
  
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।<br>
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वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥<br><br>
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क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप? 
  
आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।<br>
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मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥<br><br>
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नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥ 
  
वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।<br>
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'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?<br><br>
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कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥ 
  
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।<br>
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पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥<br><br>
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मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥ 
  
'माँ ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।<br>
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मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥<br><br>
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हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥ 
  
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।<br>
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पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥<br><br>
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उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥ 
  
मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।<br>
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मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥<br><br>
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मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥ 
  
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।<br>
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जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।  
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥<br><br>
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भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥
 
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मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।<br>
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मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥<br><br>
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जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।<br>
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भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥<br><br>
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18:25, 12 अप्रैल 2024 के समय का अवतरण

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बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥