"यह कविता नहीं, सच का बयान है / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर
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अकड़ रहे थे हाथ - पैर | अकड़ रहे थे हाथ - पैर | ||
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मुँह से निकल रहा भाप | मुँह से निकल रहा भाप | ||
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थरथरा रहा था सारा बदन | थरथरा रहा था सारा बदन | ||
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फिर भी कहीं जाना था अनिवार्य | फिर भी कहीं जाना था अनिवार्य | ||
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सो चला जा रहा था यूँ ही अकेले मलते हुए हथेलियों को | सो चला जा रहा था यूँ ही अकेले मलते हुए हथेलियों को | ||
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और लोग भी आ-जा रहे थे | और लोग भी आ-जा रहे थे | ||
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फिर भी पसरी थी वीरानी | फिर भी पसरी थी वीरानी | ||
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कोई ठहरता न था मेरी आँखों में | कोई ठहरता न था मेरी आँखों में | ||
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मैं चला जा रहा था लरजते क़दमों से | मैं चला जा रहा था लरजते क़दमों से | ||
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यूँ ही कुछ सोचना था | यूँ ही कुछ सोचना था | ||
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तो सोच रहा था तुम्हे | तो सोच रहा था तुम्हे | ||
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सच बताऊँ तो तुम्हे सोचना जितना दुःख देता है | सच बताऊँ तो तुम्हे सोचना जितना दुःख देता है | ||
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उससे कम सुकून भी नहीं देता | उससे कम सुकून भी नहीं देता | ||
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गुजर गए दस साल | गुजर गए दस साल | ||
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लेकिन सांसों की तरह बनी रही तुम्हारी याद | लेकिन सांसों की तरह बनी रही तुम्हारी याद | ||
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यूँ कि बगैर उसके तो मैं था ही नहीं | यूँ कि बगैर उसके तो मैं था ही नहीं | ||
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चला जा रहा था मैं | चला जा रहा था मैं | ||
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कि कोहरे से लिपटी तुम्हारी काया | कि कोहरे से लिपटी तुम्हारी काया | ||
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वैसे ही खुले हुए तुम्हारे बाल, | वैसे ही खुले हुए तुम्हारे बाल, | ||
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सब्ज साडी के ऊपर काला लम्बा कोट | सब्ज साडी के ऊपर काला लम्बा कोट | ||
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तुम्हारा दिख जाना | तुम्हारा दिख जाना | ||
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शिशिर की हड्डी में चुभने वाली ढंड में गर्म धूप का अहसास ही तो था | शिशिर की हड्डी में चुभने वाली ढंड में गर्म धूप का अहसास ही तो था | ||
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नहीं हो पा रहा था यकीन | नहीं हो पा रहा था यकीन | ||
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भूल गया था कि मुझे जाना कहाँ है ? | भूल गया था कि मुझे जाना कहाँ है ? | ||
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मचल उठा था मैं | मचल उठा था मैं | ||
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शायद तुमने देखा नहीं | शायद तुमने देखा नहीं | ||
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कैसे उस स्कूटर से टकराते -टकराते बचा था मैं | कैसे उस स्कूटर से टकराते -टकराते बचा था मैं | ||
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स्कूटर वाले की बदतमीजी मुझे दुआ सी लग रही थी | स्कूटर वाले की बदतमीजी मुझे दुआ सी लग रही थी | ||
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थोडा सा भर गया तुम्हारा बदन | थोडा सा भर गया तुम्हारा बदन | ||
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हाँ हाँ ! तुम्ही थे | हाँ हाँ ! तुम्ही थे | ||
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तभी तो मेरे पुकारने पर ' नेहा ' | तभी तो मेरे पुकारने पर ' नेहा ' | ||
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तुमने देखा था पलटकर | तुमने देखा था पलटकर | ||
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मैं भूल गया था सर्दी , कोहरा ,.... सब कुछ | मैं भूल गया था सर्दी , कोहरा ,.... सब कुछ | ||
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देखो ! फिर मत कह देना कि मैं कविता कर रहा हूँ | देखो ! फिर मत कह देना कि मैं कविता कर रहा हूँ | ||
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नहीं , नहीं, यह कविता कतई नहीं | नहीं , नहीं, यह कविता कतई नहीं | ||
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यह तो मेरे तजुर्बे का बयान है। | यह तो मेरे तजुर्बे का बयान है। | ||
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09:46, 20 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
अकड़ रहे थे हाथ - पैर
मुँह से निकल रहा भाप
थरथरा रहा था सारा बदन
फिर भी कहीं जाना था अनिवार्य
सो चला जा रहा था यूँ ही अकेले मलते हुए हथेलियों को
और लोग भी आ-जा रहे थे
फिर भी पसरी थी वीरानी
कोई ठहरता न था मेरी आँखों में
मैं चला जा रहा था लरजते क़दमों से
यूँ ही कुछ सोचना था
तो सोच रहा था तुम्हे
सच बताऊँ तो तुम्हे सोचना जितना दुःख देता है
उससे कम सुकून भी नहीं देता
गुजर गए दस साल
लेकिन सांसों की तरह बनी रही तुम्हारी याद
यूँ कि बगैर उसके तो मैं था ही नहीं
चला जा रहा था मैं
कि कोहरे से लिपटी तुम्हारी काया
वैसे ही खुले हुए तुम्हारे बाल,
सब्ज साडी के ऊपर काला लम्बा कोट
तुम्हारा दिख जाना
शिशिर की हड्डी में चुभने वाली ढंड में गर्म धूप का अहसास ही तो था
नहीं हो पा रहा था यकीन
भूल गया था कि मुझे जाना कहाँ है ?
मचल उठा था मैं
शायद तुमने देखा नहीं
कैसे उस स्कूटर से टकराते -टकराते बचा था मैं
स्कूटर वाले की बदतमीजी मुझे दुआ सी लग रही थी
थोडा सा भर गया तुम्हारा बदन
हाँ हाँ ! तुम्ही थे
तभी तो मेरे पुकारने पर ' नेहा '
तुमने देखा था पलटकर
मैं भूल गया था सर्दी , कोहरा ,.... सब कुछ
देखो ! फिर मत कह देना कि मैं कविता कर रहा हूँ
नहीं , नहीं, यह कविता कतई नहीं
यह तो मेरे तजुर्बे का बयान है।