भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यूँ तो फितरत पाई है दीवाने की, / सूफ़ी सुरेन्द्र चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:43, 16 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूफ़ी सुरेन्द्र चतुर्वेदी |अनुव...' के साथ नया पन्ना बनाया)
यूँ तो फितरत पाई है दीवाने की ।
लेकिन क़िस्मत मिली हमें वीराने की ।
आते जाते हैं अहसास यतीमों से,
गली हूँ जैसे मैं इक लंगरख़ाने की ।
जाने किसका तोड़ दिया था हमने दिल,
सज़ा मिली है टूटे काँच उठाने की ।
ख़्वाब नया फिर से पैदा हो जाता है,
जब-जब ख़्वाहिश होती है मर जाने की ।
दहरो-हरम तो ख़फ़ा रहे ताउम्र मगर, देहरो हरम = मंदिर -मस्जिद
मिलती रही दुआ हमको मयख़ाने की ।
बहरे थे वे लोग़ जो सुनने आए थे,
फूटी थी तक़दीर मेरे अफ़साने की ।
आख़िर कोठों पर उनकी परवरिश हुई,
ग़ज़लें जो थी ऊँचे बहुत घराने की ।