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"लेटी है माँ / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'" के अवतरणों में अंतर

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लेटी है माँ।
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बौर को सहलाती गुनगुनाती।
भोर की हवा<br>
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परियों की कथा सुनते बच्चे
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अपने उलझे बालों में<br>
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तैरकर पार किए थे माँ ने
 
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महसूसते, <br>
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माँ- जिसके जीवन का
 
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कोई किनारा नहीं था
जिद्दी बच्चों की रुलाई<br>
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था सिर्फ़ सीमाहीन अंधकार
 
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माँ थीं
हथेलियों में डूब जाती<br>
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बहुत दूर टिमटिमाती रोशनी
 
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वही रोशनी नहा- धोकर
और फूट पड़ती<br>
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लेटी है आँगन में।
 
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और मेरी बड़ी बहिन
माँ जिसकी आँखों में था<br>
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बुत बनी बैठी है
 
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आँखों की चमक गायब है
सातों समंदर का पानी <br>
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क्षितिज तक फैला है रेगिस्तान
 
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न ही किसी काफ़िले का
सारे समंदर <br>
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दूर तक नामोनिशान,  
 
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सोचता हूँ इसकी आँखों के लिए
तैरकर पार किए थे माँ ने<br>
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कहाँ से लाऊँ चमक
 
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कहाँ से लाऊँ सूरज ­ धुली मुस्कान
थकान को निगलते हुए ।<br>
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और मेरी छोटी बहिन
 
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उसके सिर का आकाश
माँ- जिसके जीवन का<br>
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लेटा है आँगन में
 
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उसकी हिचकियाँ उसके आँसू
कोई किनारा नहीं था<br>
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लगता है कायनात को डुबो देंगे
 
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उसका ज़र्द चेहरा
था सिर्फ़ सीमाहीन अंधकार<br>
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साक्षात पीड़ा बन गया है
 
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कहाँ से लाऊँ मैं आकाश,  
माँ थीं<br>
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जिसे उसके सिर पर ढक दूँ
 
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कहाँ से लाऊँ वे हथेलियाँ,  
बहुत दूर टिमटिमाती रोशनी<br>
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जो उसके आँसू सोख लें
 
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उँगलियाँ उलझे बालों को सुलझा दें
वही रोशनी नहा- धोकर<br>
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जो परियों की कहानी सुनाती माँ बन जाए
 
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उसके जर्द चेहरे पर, गुलाब खिला दे।
लेटी है आँगन में।<br>
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कहाँ से लाऊँ वह मीठी नज़र?  
 
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वह तो लेटी है निश्चिंत होकर आँगन में।
और मेरी बड़ी बहिन<br>
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मैं
 
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भाई से तब्दील हो रहा हूँ
बुत बनी बैठी है<br>
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अचानक सफ़र पर निकले पिता में
 
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आँगन में लेटी माँ में
आँखों की चमक गायब है<br>
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ताकि लौटा सकूँ जो चला गया
 
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जो लौटा सकता है ­आँखों की चमक
क्षितिज तक फैला है रेगिस्तान<br>
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चेहरों के ओस नहाए गुलाब
 
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बड़ी -से -बड़ी कीमत पर।</poem>
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चेहरों के ओस नहाए गुलाब<br>
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बड़ी -से -बड़ी कीमत पर ।<br>
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15:40, 26 जून 2017 के समय का अवतरण

आँगन के बीचों बीच
सफ़ेद बुर्राक कपड़ों में
लेटी है माँ।
माँ जिसकी बातें
भोर की हवा
कुदकती अमराइयों में
बौर को सहलाती गुनगुनाती।
माँ ; जिसका स्पर्श
परियों की कथा सुनते बच्चे
अपने उलझे बालों में
महसूसते,
जिद्दी बच्चों की रुलाई
हथेलियों में डूब जाती
और फूट पड़ती
माँ जिसकी आँखों में था
सातों समंदर का पानी
सारे समंदर
तैरकर पार किए थे माँ ने
थकान को निगलते हुए।
माँ- जिसके जीवन का
कोई किनारा नहीं था
था सिर्फ़ सीमाहीन अंधकार
माँ थीं
बहुत दूर टिमटिमाती रोशनी
वही रोशनी नहा- धोकर
लेटी है आँगन में।
और मेरी बड़ी बहिन
बुत बनी बैठी है
आँखों की चमक गायब है
क्षितिज तक फैला है रेगिस्तान
न ही किसी काफ़िले का
दूर तक नामोनिशान,
सोचता हूँ इसकी आँखों के लिए
कहाँ से लाऊँ चमक
कहाँ से लाऊँ सूरज ­ धुली मुस्कान
और मेरी छोटी बहिन
उसके सिर का आकाश
लेटा है आँगन में
उसकी हिचकियाँ उसके आँसू
लगता है कायनात को डुबो देंगे
उसका ज़र्द चेहरा
साक्षात पीड़ा बन गया है
कहाँ से लाऊँ मैं आकाश,
जिसे उसके सिर पर ढक दूँ
कहाँ से लाऊँ वे हथेलियाँ,
जो उसके आँसू सोख लें
उँगलियाँ उलझे बालों को सुलझा दें
जो परियों की कहानी सुनाती माँ बन जाए
उसके जर्द चेहरे पर, गुलाब खिला दे।
कहाँ से लाऊँ वह मीठी नज़र?
वह तो लेटी है निश्चिंत होकर आँगन में।
मैं
भाई से तब्दील हो रहा हूँ
अचानक सफ़र पर निकले पिता में
आँगन में लेटी माँ में
ताकि लौटा सकूँ जो चला गया
जो लौटा सकता है ­आँखों की चमक
चेहरों के ओस नहाए गुलाब
बड़ी -से -बड़ी कीमत पर।