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"हँसती-खिलती सी गुड़िया, इक लम्हे में बेकार हुई / श्रद्धा जैन" के अवतरणों में अंतर

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तेरे हाथों से छूटी जो,  मैं मिट्टी से हम वार हुई  
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तेरे हाथों से छूटी तो पल भर में मिस्मार हुई
हंसती-खिलती सी गुड़िया थी, इक धक्के से बेकार हुई  
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भोली-भाली सी गुड़िया इक, लम्हे में बेकार हुई
 
   
 
   
ज़ख्मों पर मरहम देने को, उसने तो हाथ बढाया था  
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ज़ख्मों पर मरहम रखने को, उसने हाथ बढाया था  
मेरे जीवन की पीड़ा ही, इक दोधारी तलवार हुई  
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मेरे जीवन की पीड़ा ही, दोधारी तलवार हुई  
 
   
 
   
ये गर्म फ़ज़ा झुलसाएगी, पैरों में भी छाले लाएगी
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गर्म फ़ज़ा झुलसाएगी, पैरों में छाले लाएगी
देती थी जो साया मुझको, अब दूर वही दीवार हुई  
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जो देती थी साया मुझको, दूर वही दीवार हुई  
 
   
 
   
दिन-रात दुआओं में मुझको, माँगा था खुदा से जिसने कभी
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जिसने मुझे रब से माँगा था, दिन और रात दुआओं में
ये कुर्बत फिर मालूम नहीं, क्यूँ उसके दिल का भार हुई  
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वो कुर्बत मालूम नहीं क्यूँ, उसके दिल पर भार हुई
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मुद्दत से ख़ामोश हैं लब और सन्नाटा है ज़हन में पर
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एक अजब सी तन्हाई, महसूस मुझे इस बार हुई  
 
   
 
   
जाने कब से खामोश थे लब, और सन्नाटा था जेहन में
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जिसके कारण खिलना सीखा जीवन के हर लम्हे ने
इन दोनों की तन्हाई भी, महसूस मुझे इस बार हुई
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शुकराना उसका श्रद्धा जो महकी और गुलज़ार हुई  
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जिसके कारण महका-महका मेरे जीवन का हर लम्हा
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करती शुकराना हूँ उसका जिससे " श्रद्धा " इक प्यार हुई</poem>
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13:18, 30 जनवरी 2015 के समय का अवतरण

तेरे हाथों से छूटी तो पल भर में मिस्मार हुई
भोली-भाली सी गुड़िया इक, लम्हे में बेकार हुई
 
ज़ख्मों पर मरहम रखने को, उसने हाथ बढाया था
मेरे जीवन की पीड़ा ही, दोधारी तलवार हुई
 
गर्म फ़ज़ा झुलसाएगी, पैरों में छाले लाएगी
जो देती थी साया मुझको, दूर वही दीवार हुई
 
जिसने मुझे रब से माँगा था, दिन और रात दुआओं में
वो कुर्बत मालूम नहीं क्यूँ, उसके दिल पर भार हुई

मुद्दत से ख़ामोश हैं लब और सन्नाटा है ज़हन में पर
एक अजब सी तन्हाई, महसूस मुझे इस बार हुई
 
जिसके कारण खिलना सीखा जीवन के हर लम्हे ने
शुकराना उसका श्रद्धा जो महकी और गुलज़ार हुई