भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरेक सम्त ही पेड़ों पे थे हरे पत्ते / मेहर गेरा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
हरेक सम्त ही पेड़ों पे थे हरे पत्ते
न जाने एक शजर के ही क्यों झड़े पत्ते

रुतों का फासला सदियों का फासला तो नहीं
जो अब झड़े है तो आ जाएंगे नये पत्ते

हवा-ए-तुन्द ने कैसा सितम किया बरपा
उड़ा के ले गये यादों के सिलसिले पत्ते

खिज़ां से पहले ही ख़ौफ़े-खिज़ां की नज़्र हुए
कहीं नहीं नज़र आते हरे-भरे पत्ते

तुम्हारे कुर्ब से सर-सब्ज़ था जो पेड़ कभी
मैं रोज़ देखता हूँ उसके सूखते पत्ते

ये बेनियाज़ हैं मंज़िल-रसीं की ख़्वाहिश से
हैं हमसफ़र मिरे पानी पे तैरते पत्ते।