भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम बिनु बीतत छिन-छिन / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:42, 2 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम बिनु बीतत छिन-छिन जुग-सम जीवनधन! बनवारी।
जरत रहत नित हिय दावानल दारुन दहत देह सारी॥
पै या तैं सुख होत जु तुमकूँ आवत जब यह सुधि प्यारी।
तब अति उपजत मो चित महँ सुख मिटत मरम पीरा सारी॥
धन्य वियोग-जनित मेरौ दुख जो तुहरे हित सुखकारी।
वा दुख पै हौं नित्य निछावर पल-पल जाऊँ बलिहारी॥
जुग-जुग जनम-जनम रोवत मोय मिलत रहै यह सुख भारी।
तुहरौ सुख ही है मेरौ सुख केवल, मन्मथ-मनहारी॥
या सिवाय नहिं जगै कबहुँ कछु को‌उ अभिलाषा अघहारी!।
बिछुरन-रोवन, मिलन-हँसन सब तु‌अ सुख-हित गिरिधारी॥
सुनि मृदु मधुर बचन प्यारी के पुलकित तन मुरलीधारी।
निज सुख हेतु त्याग लखि सखि कौ उमग्यौ हिय रस सुधि-हारी॥
निकस्यौ दृग-द्वारति मधु-रस सो अमृत अनुाम बिस्तारी।
दो‌उ अति विह्वल भये प्रेमबस उद‌ई प्रीति-रीति न्यारी॥
रहे मौन कछु काल रसिक प्रभु तब रस-बानी उच्चारी।
’मो पै प्रिये! बस्तु नहिं को‌ऊ तुहरे रसकी अनुहारी॥
कैसें करि सुख पहुँचावौं तोय त्याग-रस-मतवारी।
जुग-जुगको मैं रिनी, न मो पै वा रति रिन-सोधनवारी’॥
सुनि प्रिय बचन परी चरननि में प्रेमातुर सर्बस हारी।
ल‌ई उठाय तुरत प्रियतम ने भरी नेह भरि अँकवारी॥