भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तेरी कंचन सी काया पल में ढल जाय / बिन्दु जी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:03, 13 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बिन्दु जी |अनुवादक= |संग्रह=मोहन म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तेरी कंचन सी काया पल में ढल जाय।
बालक युवा जरठ पन बीते,
अंत समय अग्नि में जल जाय॥ तेरी...
जरता है जो दिन-रात हंसी-खेलों में,
ज़िन्दगी बीत जायेगी इन्हीं झमेलों में।
तू तो गफलत में है तुझको पता चलता है,
हर एक श्वास तेरा कीमती निकलता है।
जगत जाल में भटक रहा है,
स्वर्ण घड़ी बातों में तल जाय॥ तेरी...
तेरे असलों का सच्चा हिसाब क्या होगा,
मनुष्य जन्म पै पाप का वजन करके,
कभी है धर्म तो श्याम का भजन करके।
जीवन का क्षणिक भरोसा क्या है?
जैसे ‘बिन्दु’ सिन्धु मिल जाय॥ तेरी...