भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नया / मनोज कुमार झा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:15, 26 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज कुमार झा }} {{KKCatKavita}} <poem> जैसे सबकी...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जैसे सबकी तरह की मेरी नींद सबसे अलग
सबकी तरह का मेरा जगना सबसे अलग
रोज की तरह रहना यहीं पर हर रोज की तरह हर रोज से अलग
पर एक काँप अलग होने से जीने का मन नहीं भरता
कोई अंधड़ आये सारे पीले पत्ते झर जाएँ पेड़ दिखे अवाक करता अलग
मनुष्य होने का कुछ तो सुख मिले बसा रहूँ मकई के दाने-सा भुट्टे में
और खपड़ी में पड़ूँ तो फूटूँ पुराने दाग लिए मगर बिल्कुल अलग।