भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फोग रो गुरुमंतर / शंकरसिंह राजपुरोहित

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:02, 18 अक्टूबर 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लूआं रा लपरका
अर
आंधी रा झपरकां सूं आयगी
फोग रै मूंडै फेफी,
फेरूं ई ऊभो है थिर
मरुधरा माथै
सींव रै रुखाळै सो अड़ीजंत।

तिरकाळ तावड़ै सूं
बुझावै आपरी तिरस
लीलीछम कूंपळा बण जावै
किणी ऊंट री जुगाळी
अर बीज बधावै-
रायतै रौ स्वाद।

मन में कठै है खोट ?
सींव रा रुखाळा ई लेवै
जिणरी ओट।

जोग लियोड़ो सो फोग
दुनिया नैं देवै
गिरस्थी चलावण रो गुरुमंतर
अर
संतां नैं सीख।