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बाल काण्ड / भाग 2 / रामचंद्रिका / केशवदास

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दोहा
जीति जीति कीरति लई, शत्रुन की बहुँ भाँति।
पुर पर बाँधी सोभिजै, मानो तिनकी पाँति।।25।।

त्रिभंगी छंद

सम सब घर सोभैं, मुनि मन लोभैं,
रिपुगण छोमैं, देखि सबैं।
बहु दुंदुभि बाजैं, जनु घन गाजैं,
दिग्गज लाज, सुनत जबैं।।
जहँ तहँ श्रुति पढ़हीं, विघन न बढ़हीं,
जै जस मढ़हीं, सकल दिशा।
सबई सब विधि छम, बस्रत यथाक्रम,
देवपुरी सम दिवस निशा।।26।।

दंडकला छंद

कवि (कवि; शुक्र) विद्याधर (विद्वान; गंधर्व) सकल कलाधर (कलाविज्ञ; चंद्रमा)
राजराज (बड़े बड़े राजा; कुबेर) वर वेष बने।
गणपति (गण का स्वामी, गणेश) सुखदायक पशुपति (घोड़े हाथियों के रक्षक; महादेव) लायक,
सुर (योधा; सूर्य) सहायक कौन गने।
सेनापति (सेनानायक, कार्तिकेय) बुधजन (बुध नामक नक्षत्र; पंडित) मंगल (ग्रह का नाम; कल्याणमय) गुरु (शिक्षक; बृहस्पति) गण
धर्मराज (न्यायाधीश; यम) मन बुद्धि धनी।
बहु शुभ मनसाकर (मनचाहा दान देनेवाले; कामधेनु अथवा कल्पवृक्ष) करुणामय अरु
सुरतरंगिनी (सरयू, स्वर्गंगा, मंदाकिनी) सोभसनी।।27।।

हीरक छंद

पंडित मंडितगुण, दंडित-मति देखिए।
क्षत्रिय वर धर्म-प्रवर क्रुद्ध समर लेखिए।
वैश्य सहित-सत्य रहित पाप प्रगट मानिए।
शूद्र सकति, विप्र भगति, जीव जगत जानिए।।28।।

सिंहविलोकित छंद

अति मुनि तन मन तहँ मोहि रह्यो।
कछु बुधिबल वचन न जाइ कह्यो।
पशु पक्षि नारि नर निरखि तबै।
दिन रामचंद्र गुण गनत सबै।।29।।

मरहट्टा छंद

अति उच्च अगारनि बनी पगारनि जनु चिंतामणि नारि (समूह)।
बहु सत मुख धूमनि धूपति अँगनि हरि की सी अनुहारि।।
चित्री बहु चित्रनि परम बिचित्रनि केशवदास निहारि।
जनु विश्वरूप को अमल आरसी रची विरंचि विचारि।।30।।
(सोरठा) जन यशवंत विशाल, राजा दशरथ की पुरी।
चंद्र सहित सब काल, भालथली जनु ईश की।।31।।

कुंडलिया

पंडित अति सिगरी पुरी, मनहु गिरा गति गूढ़।
सिंहन युत जनु चंडिका, मोहति मूड़ अमूढ़।।
मोहति मूढ़ अमूढ़ देव संगऽदिति सी सोहै।
सब शृंगार सदेह, मनो रतिमन्मथ मोहै।।
सब शृंगार सदेह सकल सुख सुखमा मंडित।
मनो शची विधि रची विविध बिधि बरणत पंडित।।32।।

काव्य छंद

मलून ही की जहाँ अधोगति केशव गाइय।
होम हुताशन धूम नगर एकै मलिनाइय।।
दुर्गति दुर्गन ही जो, कुटिलगति सरितन ही में।
श्रीफल को अभिलाष प्रगट कविकुल के जी में।।33।।

(दोहा) अति चंचल जहँ चलदलै, विधवा बनौ न नारि।
मन मोह्यौ ऋषिराज को, अद्भुत नगर निहारि।।34।।

(सोरठा) नागर नगर अपार, महामोहतम मित्र से।
तृष्णलता कुठार, लोभसमुद्र अगस्त्य से।।35।।

(दोहा) विश्वामित्र पवित्र मुनि, केशव बुद्धि उदार।
देखत शोभा नगर की, गए राजदरबार।।36।।
शोभित बैठे तेहि सभा, सात द्वीप के भूप।
तहँ राजा दशरथ लसै, देव देव अनुरूप।।37।।
देखि तिन्हैं तब दूर ते, गुदरानों (निवेदन किया) प्रतिहार।
आये विश्वामित्रजू, जनु दूजो करतार।।38।।
उठि दौरे नृप सुनत ही, जाइ गहे तब पाइ।
लै आये भीतर भवन, ज्यौं सुरगुरु सुरराइ।।39।।

(सोरठा) सभा मध्य बैताल (भाट, बंदी) ताहि समय सो पढ़ि उठ्यो।
केशव बुद्धि विशाल, सुंदर सूरो भूप सो।।40।।

धनाक्षरी

बैताल विधि के समान हैं विमानीकृत (विमान बनाए हुए हैं) राजहंस (मराल पक्षी, राजाओं के जीव अर्थात् राजा),
विविध बिबुध (देवता; पंडित) युत मेरु सो अचल है।
दीपति दियति अति अति सातौं दीप दीपियतु,
दूसरो दिलीप सो सुदक्षिणा (राजा दिलीप की स्त्री; अच्छी दक्षिणा।) को बल हैं।
सागर उजागर की बहु वाहिनी (नदी; सेना) को पति,
छनदानप्रिय (उत्सव के अवसर पर दान देना प्रिय है जिसको (दशरथ); क्षण-क्षण (समय) का दान देना प्रिय है जिसको (सूर्य), अथवा क्षणदा (रात्रि) क्षण (विराम या विश्राम देने वाली, रात्रि) किघौं सूरज अमल है।।
सब विधि समरथ राजै राजा दशरथ,
भागीरथपथगामी (कुलोद्धार के लिये अनवरत परिश्रम; जिस मार्ग से भगीरथ के रथ के पीछे पीछे गंगा चली।) गंगा कैसे जल है।।41।।

(दोहा) यद्यपि ईंधन जरि गये अरिगण केशवदास।
तदपि प्रतापानलन के पल पल बढ़त प्रकाश।।42।।

तोमर छंद

वह भाँति पुजि सुराइ। कर जोरिकै परे पाइ।
हँसिके कह्यो ऋषिमित्र (ऋषियों में सूर्य के समान, ऋषिश्रेष्ठ)। अब बैठ राजपवित्र।।43।।
मुनि-सुनु दानमानसहंस। रघुवंश के अवतंस।।
मन माँह जो अति नेहु। इकु बस्तु माँहि, देहु।।44।।

दोधक छंद

राम गये जब तें बन माही। राक्षस बैर करैं बहुधाही।।
रामकुमार हमैं नृप दीजै। तौ परिपूरण यज्ञ करीजै।।45।।

तोटक छंद

यह बात सुनी नृप नाथ जबै।
शर से लगे आखर चित्त सबै।
मुख ते कछु बात न ज्ञात कही।
अपराध बिना ऋषि देह दही।।46।।
राजा-अति कोमल केशव बालकता।
बहु दुष्कर राक्षस-घालकता।
हमहीं चलहैं ऋषि संग अवै।
सजि सैन चलै चतुरंग सबै।।47।।

षट्पद

विश्वामित्र-जिन हाथन हठि हरषि हनत हरिणी रिपु-नंदन।
तिन न करत संहार कहा मदमत्त गयंदन।
जिन बेधत सुख लक्ष लक्ष नृपकुँवर कुँवरमनि।
तिन बाणनि बाराह बाध मारत नहिं सिंहनी।
नृपनाथनाथ दशरथ सुनिय, अकथ कथा जनि मानिए।
मृगराज राजकुल कलश अब बालक वृद्ध न जानिए।।48।।