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मेरा छोटा शहर / मंजूषा मन

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तरक्की की चाह में
एक दिन हाथ छुड़ा उससे
निकल आये थे आगे,
एक बड़े शहर के
बाहें फैलाये होने का
होता था छद्माभास...
सुनाई देती थी कानों को
एक आवाज
आओ!!!
चले आओ!!!
यहाँ मिलेगी मंजिल
बचा रक्खा है मैंने
तुम्हारे हिस्से का दाना-पानी...
और हम जा पहुंचे
पाया दाना-पानी,
मंजिल भी...
पर इस बड़े शहर में
इस तरक्की में
साथ न आया मन
जाने कहाँ रह गया...
शायद मन छोड़ न पाया उसे
या अब भी थामे है कस के
मन का हाथ
वो मेरा छोटा शहर।