भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात / सत्यप्रकाश बेकरार

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:11, 21 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सत्यप्रकाश बेकरार |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात अंधेरी काली कितनी हो
रात रात है टल जाएगी,
सूरज सूरज है निकलेगा ही
भोर सुहानी छा जाएगी।

पर यह भी एक सुनहरा धोखा है।
मैं अभी-अभी सूरज से मिलकर आया हूं,
जो वहां पहाड़ी के पीछे
कीचड़ में धंसा पड़ा है
निर्बल और बीमार पड़ा है।
हम जैसे कुछ लोग
आगे आएं
रस्से लाएं
नीचे जाएं
सब मिल-जुलकर सूरज को खींचें,
सुबह उगाई जाती है
हर बात बनाई जाती है।