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उत्तर काण्ड / भाग 4 / रामचंद्रिका / केशवदास

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तामरस छंद

जब सब वेद पुरान नसैहैं। जप तप तीरथहू मिटि जैहैं।
द्विज सुरभी नहिं कोउ बिचारै। तब जग केवल नाम उधारें।।64।।
(दोहा) मरनकाल कासी विषे, महादेव निजधाम।
जीवन को उपदेसिहैं, रामचंद्र को नाम।।65।।
मरनकाल कोऊ कहै, पापी होइ पुनीत।
सुखही हरिपुर जाइहै, सब जग गावै गीत।।66।।
रामनाम के तत्व को, जानत वेद प्रभाव।
गंगाधर कै धरनिधर, बालमीकि मुनिराव।।67।।
मोहिं न हुतो जनाइबे, सबही जान्यो आजु।
अब जो कहौ सो करि बनै, कहे तुम्हारे काजु।।68।।

रामतिलकोत्सव

दोधक छंद

सातहु सिंधुन के जल रुरे। तीरथजालनि के पय पूरे।।
कंचन के घट वानर लीने। आइ गये हरि आनँद भीने।।69।।
(दोहा) सकल रत्नमय मृत्तिका, शुभ औषधी अशेष।
सात द्वीप के पुष्प फल, पल्लव रस सविशेष।।70।।

दोधक छंद

आँगन हीरन को मन मौहै। कुंकुम चंदन चचित सोहै।।
है सरसी सम सोभप्रकासी। लोचन मीन मनोज विलासी।।71।।
(दोहा) गजमोतिनयुत सोभिजैं, मरकतमनि के थार।
उदक बुंद सैं जनु लस्त, पुरइनिपत्र अपार।।72।।

विशेषक छंद

भाँतिन भाँतिन भाजन राजत कौन गनै।
ठौरहि ठौर रहे जनु फूलि सरोज घनै।।
भूपन के प्रतिबिब विलोकत रुप रसे।
खेलत है जल माँझ मनो जलदेव बसे।।73।।

पद्धटिका छंद

मृगमद मिलि कुंकुम सुरभिनीर।
घनसार सहित अंबर उसीर।।
बसि केशरि सों बहु बिविध नीर।
छिति छिरके चर थावर सरीर।।74।।
बहु वर्ण फूल फल दल उदार।
तहँ भरि राखे भाजन अपार।।
तहँ पुष्प वृक्ष सोभैं अनेक।
मणिवृक्ष स्वर्ण के वृक्ष एक (अपूर्व)।।75।।
तेहिं उपर रच्यो एकै बितान।
दिवि देखत देवन के विमान।।
दुहुँ लोक होत पूजा विधान।
अरु नृत्य गीत वादित्र गान।।76।।
तरु ऊमरि (गूलर) को आसन अनूप।
बहु रचित हेममय विश्वरूप।।
तहँ बैठे आपुन आइ राम।
सिय सहित मनौ रति रुचिर काम।।77।।
जनु घन दामिनि आनंद देत।
तरुकल्प कल्पबल्ली समेत।।
है कैधौं विद्या सहित ज्ञान।
कै तपसंयुत मन सिद्धि जान।।78।।
कै विक्रम युत कीरति प्रवीन।
कै श्री नारायन सोभलीन।।
कै अति सोभित स्वाहा सनाथ।
कै सुंदरता शंृगार साथ।।79।।

सुंदरी छंद

केसव शोभन छत्र विराजत।
जो कहँ देखि सुधाधर लाजत।।
शोभित मोतिन के मनि के गनु।
लोकन के जनु लागि रहे मनु।।80।।
(दोहा) शीतलता शुभता सबै, सुंदरता के साथ।
अपनी रवि की अंशु लै, सेवत जनु निशिनाथ।।81।।

सुंदरी छंद

ताहि लिये रविपुत्र सदा रत।
चमर विभीषन अगद ढारत।।
कीरति लै जग की जनु वारत।
चंद्रक (कपूर) चंदन चद सदारत (सदा$आर्त नित्य दुखी)।।82।।
लक्ष्मण दर्पण को देखरावत।
पाननि लक्ष्मण बंधु खवावत।।
भर्थ लै लै नरदेव सदारत।
देव अदेवनि पायन पारत।।83।।
(दोहा) जामवंत हनुमंत नल, नील मरातिब (माहीमरातिब, शाहंशाही झंडा) साथ।
छरी छबीली शौभिजै, दिगपालन के हाथ।।84।।