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किष्किंधा काण्ड / भाग 1 / रामचंद्रिका / केशवदास

(दोहा) ऋष्यमूक पर्वत गये, केशव श्री रघुनाथ।
देखे वानर पंच विभु, मानो दक्षिण हाथ।।1।।

कुसुमविचित्रा छंद

तब कपि राजा रघुपति देखे।
मन नर नारायण सम लेखे।।
द्विज बपु धरि तहें हनुमत आये।
बहु विधि आशिष दै मन भाये।।2।।

राम हनुमान संवाद

हनुमान-सब विधि रूरे वन महँ को हौ।
तन मन सूरे मनमय मोहौ।
शिरसि जटा वकला वपुधारी।
हरिहर मानहुँ विपिनविहारी।।3।।
परम वियोगी सम रस मीने।
तन मन एकै युग तन कीने।
केहि कुल हौ कौने पुनि जाये।।4।।

चंचरी छंद

राम- पुत्र श्री दशरत्थ के बन राज सासन आइयो।
सीय सुंदरि संग ही बिछुरी सो सोध न पाइयो।।
राम लक्ष्मण नाम संयुत सूरवंश बखानिए।
रावरे वन कौन हौ क्यहि काज क्यों पहिचानिए।।5।।

(दोहा)
हनुमान - या गिरि पर सुग्रीव नृप, ता सँग मंत्री चारि।
वानर लयी छँडाइ तिय, दीन्हों बालि निकारि।।6।।

दोधक छंद

वा कहँ जौं अपनो कर जानौ।
मारहु बालि विनैं यह मानौ।।
राज देहु दै बाकी तिथा कौं।
तो हम देहिं बताय सिया कौं।।7।।

राम सुग्रीव मिताई

(दोहा) उठे राज सुग्रीव तब, तन मन अति सुख पाइ।
सीता जू के पट सहित, नूपुर दीन्हें आइ।।8।।

दंडक

राम- पंजर की खंजरीट, नैनन को किधौं मीन
मानस को केशोदास जलु है कि जारु है।
अंग को कि अंगराज, गेडुंआ (तकिया) की गलसुई (गाल के नीचे लगाने का छोटा कोमल तकिया)
किधौं कोट जीव ही कौ उर कौ कि हारु है।
धन हमारौ कामकेलि कौ, कि ताडिबे को
ताजनौ, (फा. ताजियाना, कोड़ा) विचार कौ, की चमर विचारु है।
मान की जमनिका (परदा, कनात) की, कँजमुख मूँदिबे कों।
सीताजू कौ उत्तरीय, सब सुख सारु है।।9।।

स्वागता छंद

बानरेंद्र तब यौं हँसि बोल्यो।
भीति भेद जिय कौ सब खोल्यो।
आगि बारि परतच्छ करी जू।
रामचंद्र हँसि बाहँ धरी जू।।10।।
सुर-पुत्र तब जीवन जान्यो।
बालि-जोर बहु भाँति बखान्यो।
नारि छीनि जेहि भाँति लई जू।
सो अशेष विनती बिनई जू।।11।।

सप्तताल बेधन

एक बार शर एक हनौ जौ।
सात ताल बलवंत गनौं तौ।।
रामचंद्र हँसि बाण चलायो।
खाल वधि फिरि कै कर आपो।।12।।

तारक छंद

सुग्रीव-यह अद्भुत कर्म और पै होई।
सुर सिद्धि प्रसिद्ध न में तुम कोई।।
निकरी मन तैं सिगरी दुचिताई।
तुम सौं प्रभु पाय सदा सुखदाई।।13।।

विजय छंद

बावन कौ पद लोकन मापि ज्यौं बावन के वपु मोह सिधायो।
केशव सूरसुता जल सिंधुहिं पुरिकै सूरहि कौ पद पायो।।
काम के बाण त्वचा सब वेधिकै काम पै आवत ज्यों जग गायो।
राम कौ शायक सातहु तालनि बेधिकै रामहिं के कर आयो।।14।।
(सोरठा) जिनके नाम विलास, अखिल लोक बेधत पतित।
तिनको केशवदास, सात ताल बेधन कहा।।15।।

बालि वध

पद्धटिका छंद

रवि-पुत्र बालि सौं होत युद्ध।
रघुनाथ भये मन माहँ क्रुद्ध।।
शर एक हन्यौ उर मित्र काम।
तब भूमि गिर्यो कहि ‘राम’ ‘राम’।।16।।
कुछ चेत भये तेहि बल-निधान।
रघुनाथ विलोके हाथ बान।।
शुभ चीर जटा शिर श्याम गात।
बनमाल हिये उर विप्रलात।।17।।