भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या बोलूँ क्या बात है / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
नीलकमल बन छाईं आँखें,
राग-रंग ने पाईं पाँखें;
बाण बने तुम इन्द्रधनुष पर
जग पीपल का पात है!
अनयन दिन के बीते पल-छिन;
माँग भरे क्यों संध्या तुम बिन!
लुक-छिपकर क्या झाँक रहे हो?
देखो, कैसी रात है!
घर सूना, बाहर भी सूना,
झंझावात, अँधेरा दूना;
कंपित दीप, झरोखे पर तुम
आँगन में बरसात है!