चौथॉ-सर्ग / सिद्धो-कान्हू / प्रदीप प्रभात
सिद्धो-कान्हू कहै जेना होतै,
अंग्रेजोॅ से आय लेबै फड़ियाय
संताल जत्था तीन-धनुष सेॅ
अंग्रेजोॅ केॅ दै छितराय।
चौथॉ-सर्ग
गोड्डा, पाकुड़, महेशपुर के जंगली इलाके मेॅ उपद्रव
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ठाकुर सिद्धोॅ-कान्हू सेॅ जानलकै,
जीवन के खिस्सा अनमोल।
फूलों-झानों के सामनां खोलेॅ लागलै,
सिद्धोॅ-कान्हू आपनोॅ जीवन रोॅ पोल।
भैंया ई खिस्सा कहीं मातृभूमि के ऋणी,
हमेशा लेली देलोॅ बनाय।
जीवन भर नै कहियोॅ भूलभौं,
राखै छियौं पहाड़ी बाबा केॅ साक्ष।
दोन्हूॅ के बतकही सुनै लेॅ,
चॉद-तारा भी जागै आकाश।
उगी भुरूकवा बतलाबै छै,
की सुलतोॅ छोॅ होलै आबेॅ भोर।
चमगुदड़ी केॅ नींद कहाँ छै,
भागै उल्लू करनेॅ शोर।
सतभैवा तनि छेलै नीचें,
तीनडरिया पश्चिम दिश जाय।
कचबचिया तेॅ कचबच करनें,
ऑखी केरोॅ नींद उड़ाय।
आरू चिड़िया चुनमुन-चुनमुन,
डारी बैठी गाबैं गीत।
सुग्गा भोरे-भोर जगाबै,
गीत गाबी दै संगीत।
लम्बा डेग भरनें तबेॅ निकलै,
सिद्धो-कान्हू बरगद के नजदीक।
चॉद-भायरो धनुष निकालै,
करै धनुष के डोरी ठीक।
पूरब मेॅ लाली कुछ झलकै,
चिडियॉ के आबै आबाज।
अंग्रेज, महाजन केॅ ताकै सिद्धो-कान्हू,
जेना कोय पक्षी केॅ बाज।
हुन्नेॅ सोनारचक चौकोॅ पर,
प्रताप नारायण दारोगा के मुण्डी हलाल।
पीरपैंती स्टेशन कब्जा करी,
लुटै माल-खजाना।
अंग्रेजें अपना चालोॅ सें,
चुड़ामांझी केॅ भटकाबै।
बनलै चुड़ामांझी हमरानी बीचों मेॅ,
अंग्रेजोॅ के दलाल।
चुड़ामांझी मिर्जाफर बनलै,
जे निकली गेलै गद्दार।
अंग्रेजोॅ के कठपुतली बनलै,
सिद्धो-कान्हू केॅ दै धक्कामार।
लायड, ब्राउन केॅ पता बताबै,
चुड़ामांझी जासूस बनी केॅ।
मतवाला होलै क्षणिक लोभ मेॅ,
चना-चबेना पाबी केॅ।
गद्दारी के चलतें पहिनें,
घोॅर द्वार ठुकरैनें छै।
सिद्धो-कान्हू केॅ पकड़ाबै लेली,
चुड़ा मांझी कसमोॅ खैलेॅ छै।
चुड़ा मांझी के झांसा मेॅ आबी,
सिद्धो-कान्हू पड़लै फेरोॅ मेॅ।
ऊ पापी तेॅ अखनी मिललोॅ छै,
लायेड-ब्राउन केरोॅ जेरोॅ मेॅ।
सिद्धो-कान्हू आपनोॅ दस्ता साथें,
प्यालापुर दिश आबै छै।
पोल खुलै जब चुड़ा केरोॅ,
काम तमाम कराबै छै।
आबरी चुड़ा बुढ़िया नॉकी,
ढेंकी मेॅ कुटैते।
सब दिन जे चुगल खोरी करनेॅ छै,
ऊ करनी के फोॅल पैतै।
बीहड़ रस्ता जंगल केरोॅ,
जल्दी गोड़ बढ़ाबै छै।
दम मारै छै चलतेॅ-चलतेॅ,
जबेॅ महेशपुर आबै छै।
ब्राऊन-लायेड नेॅ टोह लगाबै,
फेकै जन्नेॅ-तन्नेॅ जाल।
सिद्धो-कान्हू चाहै छेलै लायेड-ब्राऊन केॅ,
अपनोॅ तीरोॅ सेॅ दौ बिथराय।
मतरकि लायेड-ब्राऊन केॅ वै जग्धा पर,
कखनूॅ भूल्हौं से नैं पाय।
सिद्धो-कान्हू केरोॅ तरवनी,
जाय सब मनसूबा भुतलाय।
घमासान दोनों पक्षों मेॅ,
तखनी होलै खूब लड़ाय।
अंग्रेज गोली चलाबै,
गाछी आढ़ें देह छिपाय।
गेलै बन्दूकोॅ के गोली सें,
जंगल, झाड़ी, झरना थर्राय।
बंदर-डारी-डारी कूदै-फानै,
भागै जान बचाय।
अंग्रजोॅ के रहै बड्डी जोर,
सिद्धो-कान्हू पड़ै कमजोर।
गोली सें घायल होलोॅ,
पीछू हटलोॅ जाय।
जान बचाना मुश्किल जानी,
गैलै सब घबराय।
हूल भयंकर अठारह सौ पचपन के,
बिगुल बाजलोॅ छेलै आजादी केॅ।
जान बचै तक युद्धोॅ मेॅ,
घी केॅ आगिन मेॅ ढारै छै।
सिद्धो-कान्हू के घायल होला पर,
संताल जरा नरमाबै छै।
देश, विदेश मेॅ सिद्धो-कान्हू,
बीर पुरूष कहलावै छै।
घायल होलै सैनिक बुलाबै,
हाथ मेॅ रस्सी-कस्सी-कस्सी बंधवावै।
जुल्मी-जुल्म मिटाबै खातिर,
कवज हृदय रोॅ कड़कै छै।
अन्यायी के आकाशोॅ मेॅ,
बिजली नॉकी तड़कै छै।
सिद्धो-कान्हू के आगू होलै,
शासन-सूरज अस्त।
अंग्रेज, महाजनोॅ केॅ,
करि छोड़लकै पस्त।