भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

द्वितीय प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे प्राण तू ही प्रजापति, करे गर्भ में विचरण तू ही,
पितु - मातु के अनुरूप, शिशु का जन्म लेता है तू ही।
प्राणों की तृप्ति को अन्न भक्षण, कर्म केन्द्र तू ही, तू ही,
अस्तित्व प्राणी का प्राण से, सब प्राणियों में है तू ही॥ [ ७ ]

हे प्राण तू ही देवताओं के छवि का साधक अग्नि है,
पितरों की पहली स्वधा है और प्राण की पंचाग्नि है।
तू ही अथर्वांगिरस ऋषियों का अनुभव सत्य है,
तू ही जगत का प्राण तत्व है, प्राण बिन जग मृत्य है॥ [ ८ ]

हे प्राण तू त्रैलोक स्वामी, तेज पुंज है इन्द्र तू,
संहार कर्ता प्रलय काले, रूप प्राण का रुद्र तू।
ज्योतिर्गनों का स्वामी रवि तू, भू,चन्द्र, तारे, अनिल तू,
रक्षक व् पोषक तू ही तू दिवि अन्तरिक्षे अनल तू॥ [ ९ ]

जब मेघ रूप में प्राण पृथ्वी पर सकल वर्षा करें,
पर्याप्त अन्न की कामना , तेरी प्रजा हर्षा करे।
निर्वाह जीवन का सरस , आनंद मय हो जाएगा,
यह जान हर्षित प्राणी प्रति मन मुदित महिमा गायेगा॥ [ १० ]

हैं संस्कार विहीन फिर भी प्राण अतिशय श्रेष्ठ हैं,
एकर्ष पोषण अन्न से, हम करते जिसका यथेष्ट हैं।
आकाश चारी समिष्ट वायु रूप प्राण पिता तू ही,
अति श्रेष्ट ईशानं जगत का, अन्न का भोक्ता तू ही॥ [ ११ ]

मन श्रोत्र, वाणी , चक्षुओं में , प्राण का जो रूप है,
इन्द्रियों अन्तःकरण की वृति में जो अनूप है।
हे प्राण तुम कल्याणमय होकर रहो स्थित यहीं,
न ही देह से करो उत्क्रमण, मम भावः है अर्पित यही॥ [ १२ ]

स्वर्ग लोक में, दृश्य जग में, जो भी कुछ दृष्टव्य है,
सब प्राण के ही अधीन है और प्राणमय गंतव्य है।
माता के सम हे प्राण ! तुम रक्षा करो पोषण करो,
दो कार्य क्षमता , कान्ति श्री, प्रज्ञा का संप्रेषण करो॥ [ १३ ]