विनयावली / तुलसीदास / पद 181 से 190 तक / पृष्ठ 3
पद संख्या 185 तथा 186
(185)
लाज न लागत दास कहावत।
सो आचरन बिसारि सोच तजि , जो हरि तुम कहँ भावत।1।
सकल संग तजि भजत जाहि मुनि , जप तप जाग बनावत।
मो-सम मंद महाखल पाँवर, कौन जतन तेहि पावत ।2।
हरि निरमल , मलग्रसित हृदय , असमंजस मोहि जनावत।
जेहि सर काक, कंक बक सूकर , क्यों मराल तहँ आवत।3।
जाकी सरन जाइ कोबिद त्रयताप बुझावत।
तहूँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहुँ मिटत न सावत।4।
भव-सरिता कहँ नाउ संत, यह कहि औरनि समुझावत।
हौं तिनसों हरि! परम बैर करि, तुम भलो मनावत।5।
नाहिंन और ठौर मो कहँ , ताते हठि नातो लावत।
राखु सरन, उदार-चूड़ामनि! त्ुलसिदास गुन गावत।6।
(186)
कौन जतन बिनती करिये।
निज आचरन बिचारि, हारि हिय जानि डरिये।1।
जेेहिं साधन हरि! द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये।
जाते बिपति -जाल निसिदिन दुख, तेहि पथ अनुसरिये।2।
जानत हूँ मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये।
सो बिपरीत देखि पर-सुख, बिनु कारन ही जरिये।3।
श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये।
निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये।4।
संतत सोइ प्रिय मोंहिं सदा जातें भवनिधि परिये ।
कहौ अब नाथ, कौन बलतें संसार-सोग हरिये।5।
जब कब निज करूना- सुभावतें, द्रवहु तौ निस्तारिये।
तुलसिदास बिस्वास आन नहिं , कत पचि -पचि मरिये।6।