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पाताल की रातें / धीरेन्द्र सिंह काफ़िर
Kavita Kosh से
वो हिज्र कि रातें वो विसाल कि रातें
रोज़ की तरह तन्हा-ऐ-हाल कि रातें
डूब जाएँ या फिर, बह जाएँ ये कहीं
ना मिले इस तरह की बवाल की रातें
चाँद जा गिरा है कहीं दरिये में किसी
बेनूर-सी ये, फिजूल कमाल की रातें
हुआ मैं बेकल मिरी उलझनों में यारो
कहाँ से लाऊँ अब, एतिदाल की रातें
हर शय अब खुद ही खेलता है काफ़िर
कहाँ आसमा कहाँ ये पाताल की रातें