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राग आसावरी / पृष्ठ - ६ / पद / कबीर

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चेतनि देखै रे जग धंधा,
राम नाम का मरम न जाँनैं, माया कै रसि अंधा॥टेक॥
जतमत हीरू कहा ले आयो, मरत कहा ले जासी।
जैसे तरवर बसत पँखेरू, दिवस चारि के बासी॥
आपा थापि अवर कौ निंदै, जन्मत हो जड़ काटी।
हरि को भगति बिना यहु देही, धब लौटैे ही फाटी॥
काँम क्रोध मोह मद मंछर, पर अपवाद न सुणिये।
कहैं कबीर साथ की संगति, राम नाम गुण भणिये॥253॥

रे जम नाँहि नवै व्यापारी, जे भरैं जगाति तुम्हारी॥टेक॥
बसुधा छाड़ि बनिज हम कीन्हों, लाद्यो हरि को नाँऊँ।
राम नाम की गूँनि भराऊँ, हरि कै टाँडे जाँऊँ॥
जिनकै तुम्ह अगिवानी कहियत, सो पूँजी हँम पासा।
अबै तुम्हारी कछु बल नाँहीं, कहै कबीरा दासा॥254॥

मींयाँ तुम्ह सौं बोल्याँ बणि नहीं आवै।
हम मसकीन खुदाई बंदे, तुम्हारा जस मनि भावै॥टेक॥
अलह अवलि दीन का साहिब, जार नहीं फुरमाया।
मुरिसद पीर तुम्हारै है को, कहौ कहाँ थैं आया॥
रोजा करै निवाज गुजारै, कलमैं भिसत न होई।
संतरि काबे इक दिल भीतरि, जे करि जानैं कोई॥
खसम पिछाँनि तरस करि जिय मैं माल मनी करि फीकी।
आपा जाँनि साँई कूँ जाँनै, तब ह्नै भिस्त सरीकी॥
माटी एक भेष धरि नाँनाँ, सब मैं ब्रह्म समानाँ॥
कहै कबीर भिस्त छिटकाई, दाजग ही मन मानाँ॥255॥

अलह ल्यौ लाँयें काहे न रहिये, अह निसि केवल राम नाम कहिये॥टेक॥
गुरमुखि कलमा ग्याँन मुखि छुरि, हुई हलाहल पचूँ पुरी॥
मन मसीति मैं किनहूँ न जाँनाँ, पंच पीर मालिम भगवानाँ॥
कहै कबीर मैं हरि गुन गाऊँ, हिंदू तुरक दोऊ समझाऊँ॥256॥

रे दिल खोजि दिलहर खोजि, नाँ परि परेसाँनीं माँहि।
महल माल अजीज औरति, कोई दस्तगोरी क्यूँ नाँहि॥टेक॥
पीराँ मुरीदाँ काजियाँ, मुलाँ अरू दरबेस।
कहाँ थे तुम्ह किनि कीये, अकलि है सब नेस॥
कुराना कतेबाँ अस पढ़ि पढ़ि, फिकरि या नहीं जाइ॥
दुक दम करारी जे करै, हाजिराँ सुर खुदाइ॥
दरोगाँ बकि बकि हूँहि खुसियाँ, बे अकलि बकहिं पुमाहिं।
इक साच खालिक खालक म्यानै, सो कछू सच सूरति माँहि॥
अलह पाक तूँ नापाक क्यूँ, अब दूसर नाँहीं कोइ।
कबीर करम करीम का, करनीं करै जाँनै सोइ॥257॥
टिप्पणी: क-प्रति में आठवीं पंक्ति का पाठ इस प्रकार है-
साचु खलक खालक, सैल सूरति माँहि॥


खालिक हरि कहीं दर हाल।
पंजर जसि करद दुसमन मुरद करि पैमाल॥टेक॥
भिस्त हुसकाँ दोजगाँ दुंदर दराज दिवाल।
पहनाम परदा ईत आतम, जहर जंगम जाल।
हम रफत रहबरहु समाँ, मैं खुर्दा सुमाँ बिसियार।
हम जिमीं असमाँन खालिक, गुद मुँसिकल कार॥
असमाँन म्यानैं लहँग दरिया, तहाँ गुसल करदा बूद।
करि फिकर रह सालक जसम, जहाँ से तहाँ मौजूद॥
हँम चु बूँद खालिक, गरक हम तुम पेस।
कबीर पहन खुदाइ की, रह दिगर दावानेस॥258॥

अलह राम जीऊँ तेरे नाई, बंदे ऊपरि मिहर करी मेरे साँई॥टेक॥
क्या ले माटी भुँइ सूँ, मारैं क्या जल देइ न्हवायें।
जो करै मसकीन सतावै, गूँन ही रहै छिपायें॥
क्या तू जू जप मंजन कीये, क्याँ मसीति सिर नाँयें।
रोजा करैं निमाज गुजारैं, क्या हज काबै जाँयें॥
ब्राह्मण ग्यारसि करै चौबीसौं, काजी महरम जाँन।
ग्यारह मास जुदे क्यू कीये, एकहि माँहि समाँन॥
जौ रे खुदाइ मसीति बसत है, और मुलिक किस केरा।
तीरथ मूरति राम निवासा, दुहु मैं किनहूँ न हेरा॥
पूरिब दिसा हरी का बासा, पछिम अलह मुकाँमा।
दिल ही खोजि दिलै दिल भीतरि, इहाँ राम रहिमाँनाँ॥
जेती औरति मरदाँ कहिये, सब मैं रूप तुम्हारा।
कबीर पंगुड़ा, अलह राम का, हरि गुर पीर हमारा॥259॥
टिप्पणी: ख-सब मैं नूर तुम्हारा॥

मैं बड़ मैं बड़ मैं बड़ माँटी, मण दसना जट का दस गाँठी॥टेक॥
मैं बाबा का जाध कहाँऊँ, अपणी मारी नींद चलाऊँ।
इनि अहंकार घणें घर घाले, नाचर कूदत जमपुरि चाले॥
कहै कबीर करता ही बाजी, एक पलक मैं राज बिराजी॥260॥

काहे बीहो मेरे साथी, हूँ हाथी हरि केरा।
चौरासी लख जाके मुख मैं, सो च्यंत करेगा मेरा॥टेक॥
कहौ गौन षिबै कहौ कौन गाजै, कहा थैं पाँणी निसरै।
ऐसी कला अनत है जाकैं, सो हँम कौं क्यूँ बिसरै॥
जिनि ब्रह्मांड रच्यै बहु रचना, बाब बरन ससि सूरा।
पाइक पंच पुहमि जाकै प्रकटै, सो क्यूँ कहिये दूरा॥
नैन नालिक जिनि हरि सिरजे, बसन बसन बिधि काया।
साधू जन कौं क्यूँ बिसरै, ऐसा है राम राया॥
को काहू मरम न जानैं, मैं सरनाँगति तेरी।
कहै कबीर बाप राम राया, हुरमति राखहु मेरी॥261॥