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{{KKRachna
|रचनाकार=लाला जगदलपुरी
|संग्रह=मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश / लाला जगदलपुरी
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<poem>
मचल उठे प्लास्टिक के पुतले,
माटी के सब घरे रह गये।
जब से परवश बनी पात्रता,
चमचों के आसरे रह गये।

करनी को निस्तेज कर दिया,
इतना चालबाज कथनी में;
श्रोता बन बैठा है चिंतन,
मुखरित मुख मसखरे रह गये।

आंगन की व्यापकता का,
ऐसा बटवारा किया वक्त नें;
आंगन अंतर्ध्यान हो गया,
और सिर्फ दायरे रह गये।

लूट लिया जीने की सारी,
सुविधाओं को सामर्थों नें;
सूख गयी खेती गुलाब की,
किंतु ‘कैक्टस’ हरे रह गये।

जाने क्या हो गया अचानक,
परिवर्तन के पाँव कट गये;
’रीते-पात्र’ रह गये रीते,
’भरे पात्र’ सब भरे रह गये।

</poem>
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