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<poem>'''हारकर बैठा हुआ आदमी'''


हर आदमी के अन्दर
कम से कम
एक आदमी और रहता है
यानि एक आदमी कम से कम
दो आदमी के बराबर होता है
कई बार तो हजारों आदमियों के बराबर

एक आदमी के सामने
एक समय में कम से कम
दो दुनिया होती है
कभी-कभी तो इतनी सारी दुनिया कि
उसे होश ही नहीं रहता कि
जीवन का कितना हिस्सा
किस-किस दुनिया में गुजरा

आदमी जब तक जीतता रहता है
एक भीड़ दौड़ती रहती है
उसके साथ
जब हारने लगता है
छंट जाती है भीड़
अकेला पड़ जाता है
फिर भी अदंर के आदमी होते हैं
उसके साथ

आदमी थकहारú कर जब बैठ जाता है
मरने लगते है उसके अन्दर के आदमी
सिर्फ हाँफती हुई दुनिया बचती है
उसके सामने

थकहारú कर बैठा हुआ आदमी
ज्यादा से ज्यादा
एक आदमी के बराबर भी नहीं होता है
</poem>
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