भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
ज़िन्‍दाने – कुहन के
‘जयहिन्‍द’ के नारों से फ़ज़ा गूंज गूँज रही है ‘जयहिन्‍द’ की आलम में सदा गूंज गूँज रही है
यह वलवला यह जोश यह तूफ़ान मुबारक
ऐसा न हो गफ़्लत में गुज़र जाये कहीं वक़्त
लाज़िम है कि मंज़िल के निशां निशाँ पर हों निगाहें
पुरपेच हैं राहें
वह सामने आज़ादिए-कामिल का निशां निशाँ हैमक़सूद वही है, वही मंज़िल का निशां निशाँ है
दरकार है हिम्‍मत का सहारा कोई दम और
दो चार क़दम और
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,779
edits