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|रचनाकार=चाँद हादियाबादी
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वो ख़ुराफ़ात पर उतर आया
अपनी औक़ात पर उतर आया

रूप में भेड़िया था इन्साँ के
एकदम ज़ात पर उतर आया

जिसकी नज़रों में सब बराबर थे
ज़ात और पात पर उतर आया

वो फ़राइज़ की बात करता था
इख़्तियारात पर उतर आया

हुक़्मे-परवर-दिगार मूसा के
मोजिज़ा हाथ पर उतर आया

चाँद जब आया अब्र से बाहर
नूर भी रात पर उतर आया
</poem>