भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
बाज़ क़ारइन को "सुर्ख़ सवेरा" की वो नज़्में और अशआर शायद याद आ जाएँ जो इन्हें मुतासिर कर चुके हैं ।
रात भर दीद-ए नम्नाक में लहराते रहे
साँस की तरह से आप आते रहे, जाते रहे । x जो छू लेता मैं उसको, वो नहा जाता पसीने में । x ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे । x क्या मैं इस रज़्म का ख़ामूश तमाशाई बनूँ क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दूँ । x हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो- चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो । x ये जंग है जंग-ए आज़ादी । x इक नई दुनिया, नया आदम बनाया जाएगा । x सुर्ख़ परचम और ऊँचा हो, बग़ावत ज़िन्दाबाद ।
ये था "सुर्ख़ सवेरा" का रंग, "गुल-ए-तर" में ये रंग मिलेगा :
हुजूम-ए- बादाँ ओ गुल में हुजूम-ए-याराँ में किसी निगाह ने झुक कर मेरे सलाम लिए । x तोफ़-ए बर्ग-ए गुल व बाद-ए बहाराँ लेकर क़ाफ़िले इश्क़ के निकले हैं बयाबानों से । x कमान-ए अबरू-ए खूबाँ का बाँकपन है ग़ज़ल तमाम रात ग़ज़ल गाएँ दीदे-यार करें । x