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ज़माँ व मकाँ का पाबंद होने के बावजूद शेर बेज़माँ (टाइमलैस) होता है और शायर अपनी एक उम्र में कई उम्रें गुज़ारता है। समाज के बदलने के साथ-साथ इंसानी जज़्बात और एहसासात भी बदलते जाते हैं, मगर जिबल्लतें बरक़रार रहती हैं । तहज़ीब इंसानी जिब्बलतोंको समाजी तक़ाज़ों से मुताबक़त पैदा करने का मुसलसिल अमल है, जमालियाती हिस इंसानी हवास की तरक्की और नशोनुमा का दूसरा नाम है, अगर इंसान को समाज से अलग छोड़ दिया जाए तो वो एक गूँगा वहशी बन कर रह जाएगा, जो आपसी जिबल्लतों पर ज़िंदा रहेगा । फ़ुनून-ए- लतीफ़ा इंफ़रादी और एजतमाई तहजीब-ए-नफ़स का बड़ा ज़रिया है, जो इंसान को वहशत से शराफ़त की बुलन्दियों पर ले जाते हैं ।
शायर अपने गिरदोपेश के खारजी आलम और दिल के अंदर की दुनिया में मुसलसिल कश्मकश और तज़ाद तख़लीक़ की कुव्वत-ए मोहर्रिका बन जाता है ।
शायर अपने दिल में छुपी हुई रोशनी और तारीक़ी की आवेज़िश को और रुहानी करब व इज़्तराब की अलामतों को उजागर करता और शेर में ढालता है । इस अमल में तज़ादात तहलील होकर तस्कीन व तमानियत के मुरक्कब में तबदील हो जाते हैं। शायर बहैसियत एक फर्द-ए मआशरा हक़ीक़तों से मुत्तसादिम और मुतासिर रहता है, फिर वह दिल की जज़्बाती दुनिया की ख़िलवतों में चला जाता है। रुहानी करब व इज़्तेराब की भट्टी में तपता है, शेर की तख़लीक़ करता है और दाख़ेली आम से निकल कर आलम-ए ख़ारिज में वापस आता है ताके नव-ए इंसानी से क़रीबतर होकर हमकलाम हो । बाहमा और बेहमा का यही वो नुक़्ता है जिसे ज़वालयाफ़्ता अदीब "अना" और "इंफ़रादियत" से ताबीर करता है ।
शेर में हम मावरा की हदों को छूते हैं, मगर शेर समाज से मावरा नहीं होता । कहा जाता है के शेर बेकारी की औलाद है, मगर मैं एक महरूम-ए बेकारी इंसान हूँ । "गुल-ए-तर" की नज़्में, ग़ज़लें इंतहाई मसरूफ़ियतों में लिखी गई हैं । यूँ महसूस होता है के मैं लिखने पर मजबूर किया जा रहा हूँ । समाजी तक़ाज़े पुरैसरार तरीके पर शेर लिखवाते रहे हैं । ज़िंदगी "हर लहज़ा नया तूर, नई बर्क़-ए तज्जल्ली" है और मुझे यूँ महसूस होता है कि मैंने कुछ लिखा ही नहीं ।
मख़दूम मोहिउद्दीन
हैदराबाद दक्कन
24 जुलाई 1961