'''विनयावली'''
(पद 276)
'''276'''ऐसेहू साहब की सेवा सों होत चोरू रे।
कहा अपनी न कियोबूझ, कहाँ ल गयो, सीस कहि न नायो?कहै को राँडरोरू रे।।
राम रावरे बिन भये जन जनमिमुनि-जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो।1।मन-अगम, सुगत माइ-बापु सों।
आस -बिबस खास दाा ह्वै नीच प्रभुनि जनायो।कृपासिंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों।। हाहा करि दीनता कही द्वार लोक-द्वार बारबेद-बार, परी बिदित बड़ो न छाररघुनाथ सों । सब दिन सब देस, मुख बायो।2।सबहिकें साथ सों।।
असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो। स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी।
महिमा मान प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो। प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी।।
नाथ! हाथ कछु नाहि लग्योकाय न कलेस-लेस, लालच ललचायो। लेत मान मनकी।
साँच कहौं, नाच कौन सो जो, न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचाायो।4। सुमिरे सकुचि रूचि जोगवत जनकी ।
श्रवण-नयन-मृग मन लगेरीझे बस होत, सब थल पतितायो। खीजे देत निज धाम रे।
मूड़ मारि, हिय हारिकै, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो।5। फलत सकल फल कामतरू नाम रे।।
दसरथके! समरथ तुहींबेंचे खोटो दाम न मिलै, त्रिभुवन जसु गायो। न राखे काम रे।
सोऊ तुलसी नमत अवलोकिये, बाँह-बोल बलि दै बिरूदावली बुलायो।6।निवाज्यो राजराम रे।। म्ेारो भलो कियो राम आपनी भलाई।
'''277'''श्राम राम राय! बिनु रावरे मेरे केा हितु साँचो? स्वामीहौं तो साईं-सहित सबसों कहौं, सुनिद्रोही पै सेवक-गुनि बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो।1। हित साईं।।
देह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो। रामसों बडो है कौन, मोसों कौन छोटेा।
किये बिचार सार कदलि ज्योंराम सेा खरो हैं कौन, मनि कनकसंग लघु लसत बीच बिचा काँचो।मोसो कौन खोटो।।
‘बिनय-पत्रिका’ दीनकी बापु! टापु ही बाँचो।लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं। हिये हेरि एतो बडो अपराध भौ न मन बावौं।। पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी लिखी, सेा सुभाय सही कहि बहुरि पूँछिये पाँचों।3।ज्यांे नीचो। बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो।।
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