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|रचनाकार=मासूम गाज़ियाबादी
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उस सफीने को फिर क्यूँ डुबाने लगे
जिसको साहिल पे लाते ज़माने लगे

रंग मुद्दत में कलियों पे आया था, तुम
तब्सिरा फिर खिज़ां पर सुनाने लगे

बिजलियों से कहो फिर से तैयार हों
आशियाँ आज फिर हम बनाने लगे

लोग दर से जहेजों के ए मोहतरम!
बेटियों की खुराकें घटाने लगे

जिनके चेहरों पे नाखून के हैं निशाँ
वो शरीफों पे ऊँगली उठाने लगे
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