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<poem>
'''शंकर -स्तवन-10'''
( छंद 167, 168)
1(167)  जीबेकी न लालसा, दयाल महादेव! मेाहि, मालुम है तोहि, मरिबेईको रहतु हौं।  कामरिपु! श्रामके गुलामनिको कामतरू! अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं।  रोग भयो भूत-सेा, कुसूत भयो तुलसीको, भूतनाथद्व पाहि! पदपंकज गहतु हौं ।  ज्याइये तौ जानकीरमन-जन जानि जियँ मारिये तौ मागी मीचु सूधियै कहतु हौं।। (168) भूतभव! भवत पिसाच-भूत-प्रेत-प्रिय, आपनो समाज सिव आपु नीकें जानिये।  नाना बेष, बाहन, बिभूषन , बसन,बास, खान-पान, बलि-पूजा बिधिको बखानिये।।  रामके गुलामनिकी रीति, प्रीति सूधी सब, सबसों सनेह, सबहीको सनमानिये।  तुलसीकी सुधरैं सुधारें भूतनाथहीके, मेरे माय बाप गुरू संकर-भवानिये।। 
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