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'''किरीट सवैया'''
''(ऋतुराज के दर्शन से अपनी दशा का वर्णन)''

देखत हीं बन फूले पलास, बिलोकत हीं कछु भौंर की भीरन ।
बावरी सी मति मेरी भई, लखि बावरी-कंज-खिले-घटे-नीरन ॥
भाजि गयौ कढ़ि ग्यान हिए तैं, न जानि परयौ कब छोड़ि कैं धीरन ।
अन्ध न कौंन के लोचन हौंइँ, पराग-सने सरसात समीरन ॥३२॥
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