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Kavita Kosh से
अपने गर्जन की प्रतिध्वनि सुनकर था आप सहमता
क्रुद्ध कराघातों से दृढ दृढ़ अर्गला नहीं हिलती थी
सोया श्रांत मृगेंद्र, मुक्ति की युक्ति नहीं मिलती थी
सोया था हिमवान, सो रही थी गंगा की धारा