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Kavita Kosh से
मेरी चिति-किरणों का प्रसार
मैं बुझ-बुझ कर बुझकर बुझ सकी नहीं
थक गया मरण, मैं थकी नहीं
शत प्रलय उठे, मैं झुकी नहीं
हीरे, मोती, कंकड़ कि काँच
सब में निज गति का गूँथ तार
मैं जीवन-सत्ता दुर्निवार
मरु, हिम-प्रदेश, जलनिधि-तल में, गिरि-श्रृंगों पर करती विहार
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