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Kavita Kosh से
तुम पूछ रहे मुझसे जो वह पूछो इन दुखिया आँखों से
श्यामल भ्रू-शर से बिंध बिँध उड़ती तितली की दोनों पाँखों से
देखा था पहली बार तुम्हें जब मैंने लतिका-अंचल से
अकलंक कलानिधि-से उठते धुलकर नभगंगा के जल से
श्रद्धा की नतशिर भेंट लिए नतशिर भेंट लिये कोमल कुसुमों के दोने में
नि:श्वास सुधा-धारा भरते निर्जन के कोने-कोने में
उस दिन ये चंचल आँखें ही मन को ले अपने साथ उड़ीं
अनुनय-मनुहारें की मनुहारें की लाखों मन की ममता ने, पर न मुडीं
जब तुम खोये-से रहते थे वट-तरु-सम्मुख व्रत-साधन में