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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नवीन सी. चतुर्वेदी }} {{KKCatGhazal}} <poem> स-हृदय यही, स-विनय क…
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{{KKRachna
|रचनाकार=नवीन सी. चतुर्वेदी
}}
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<poem>
स-हृदय यही, स-विनय कहें, स-कुशल सभी, स-उमंग हों|
नये साल में, नये गुल खिलें, नई खुश्बुएं, नये रंग हों|१|
कु-मती भगे, सु-मती जगे, सु-मधुर विचार विमर्श हों|
सु-गठित समाज बनायँ और सदैव मस्त मलंग हों|२|
न बहे रुधिर, न जले जिगर, न कटे पतंग अनंत से|
न दबें कदापि अनीति से औ बिना वजह न दबंग हों|३|
विधिनानुसार चले जगत, अ-घटित घटे न कहीं कभी|
सदुपाय मीर करें वही - चहुँ ओर मौज तरंग हों|४|
सु-मनन करें, सु-जतन करें, अभिनव गढ़ें, अनुपम कहें|
वसुधा सवाल उठा रही, क्यूँ न फिर से ग़ालिब-ओ-गंग हों|५|
<poem>
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|रचनाकार=नवीन सी. चतुर्वेदी
}}
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स-हृदय यही, स-विनय कहें, स-कुशल सभी, स-उमंग हों|
नये साल में, नये गुल खिलें, नई खुश्बुएं, नये रंग हों|१|
कु-मती भगे, सु-मती जगे, सु-मधुर विचार विमर्श हों|
सु-गठित समाज बनायँ और सदैव मस्त मलंग हों|२|
न बहे रुधिर, न जले जिगर, न कटे पतंग अनंत से|
न दबें कदापि अनीति से औ बिना वजह न दबंग हों|३|
विधिनानुसार चले जगत, अ-घटित घटे न कहीं कभी|
सदुपाय मीर करें वही - चहुँ ओर मौज तरंग हों|४|
सु-मनन करें, सु-जतन करें, अभिनव गढ़ें, अनुपम कहें|
वसुधा सवाल उठा रही, क्यूँ न फिर से ग़ालिब-ओ-गंग हों|५|
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