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आचार्य शुक्ल ने हिन्दी का आविर्भाव काल सातवीँ शताब्दी से मानते हुए भी हिन्दी साहित्य का आरम्भ विक्रमी सँ० १०५० से माना तथा सम्पूर्ण हिन्दी साहित्येतिहास को चार काल-खण्डोँ मेँ विभक्त किया। प्रत्येक काल का नामकरण उसकी प्रमुख प्रवृत्ति के आधार पर ही किया। आचार्य शुक्ल ने कवियोँ और साहित्यकारोँ के जीवन-चरित सम्बन्धी इतिवृत्त के स्थान पर उनकी रचनाओँ के साहित्यिक मूल्याँकन को प्रमुखता दी है। इस क्षेत्र मेँ उन्होँने चुने हुए कवियोँ को ही लिया है और उनके विवेचन मेँ उनकी साहित्यिक महत्ता व लघुता का ध्यान रखते हुए उन्हेँ तदनुसार ही स्थान दिया है। आचार्य द्वारा इतिहास की रचना उस समय हुई थी जबकि हिन्दी का अधिकाँश प्राचीन साहित्य अज्ञात, लुप्त एवँ अप्रकाशित अवस्था मेँ पड़ा हुआ था, उसका प्रामाणिक अध्यन-विश्लेषण नहीँ हो पाया था। उस युग की सीमित सामग्री को जो रूप उन्होँने विवेचनात्मक तौर पर दिया है, वह निश्चय ही उनकी स्वतँत्र चेतना एवँ विवेचना शक्ति का परिचायक है। उनका रसवादी सिद्धाँत लोकमँगल भावना की कसौटी, काव्य मेँ मानव-समाज का प्रतिविम्ब तथा साहित्यिक धारा को विकसित करने वाली शक्तियोँ का विश्लेषण आदि काव्य, कवि तथा युग के उत्कर्ष के निर्धारण के आधार रूप मेँ गृहीत हुए हैँ। विभिन्न काव्यधाराओँ और युगोँ की साहित्यिक प्रवृत्तियोँ के निर्धारण मेँ उन्हेँ सफलता प्राप्त हुई है। उन्होँने भक्ति काल को चार भागोँ मेँ बाँटा है - पहले निर्गुण-धारा और सगुण-धारा मेँ फिर प्रत्येक को दो-दो शाखाओँ - ज्ञानाश्रयी शाखा व प्रेमाश्रयी शाखा तथा रामभक्तिशाखा व कृष्णभक्तिशाखा मेँ। रीतिग्रन्थकारोँ के आचार्यत्व एवँ कवित्व का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए उनकी उपलब्धियोँ तथा सीमाओँ के सम्बन्ध मेँ जो निर्णय आचार्य शुक्ल ने दिये, वे बहुत कुछ अँशोँ मेँ आज भी मान्य हैँ। भक्तिकाल की ही भाँति रीतिकाल मेँ भी नामकरण, सीमा-निर्धारण, परम्पराओँ व काव्यधाराओँ का वर्गीकरण वर्गविशेष के एकपक्षीय बोध का सूचक है जिससे इस काल के रीतिमुक्त प्रेममार्गी कवियोँ, वीररसात्मक काव्योँ के रचयिताओँ तथा राजनीति एवँ वैराग्य सम्बन्धी मुक्तकोँ के रचयिता कवियोँ के साथ न्याय नहीँ हो पाता। उन्होँने साहित्यिक परम्पराओँ और प्रवृत्तियोँ को युगविशेष की चित्तवृत्ति के प्रतिविम्ब के रूप में ही ग्रहण किया, उन तत्त्वोँ और स्रोतोँ की उपेक्षा की जिनका सम्बन्ध पूर्व प्रम्परा से है। परिणाम यह हुआ कि उन्होँने पूरे मध्यकाल की विभिन्न धाराओँ और प्रवृत्तियोँ को तदयुगीन मुस्लिम प्रभाव की देन के रूप मेँ स्वीकार कर लिया - जैसे भक्ति-आँदोलन तदयुगीन निराशा की देन है, सँत-मत इस्लाम के एकेश्वरवाद के प्रभाव का सूचक है, प्रेमाख्यान-परम्परा सूफी मसनवियों से अनुकृत है, आदि। वस्तुत: सँस्कृत साहित्य की पौराणिक परम्पराओँ, प्राकृत-अपभ्रँश के प्रेमाख्यानोँ व मुक्तकोँ की धाराओँ, सिद्धोँ व नाथपँथियोँ की गुह्य वाणियोँ की उपेक्षा करके मध्यकालीन हिन्दी-काव्य की विभिन्न काव्यधाराओँ के वर्तमान स्वरूप की आलोचना भले की जा सके, किन्तु उसके आधार-स्रोतोँ का अनुसन्धान और उनके विकास-क्रम की ऎतिहासिक व्याख्या सम्भव नहीँ है।
[[अयोध्यासिंह अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध‘हरिऔध’]] ने अपने ग्रन्थ "हिन्दी भाषा और उसके साहित्य का इतिहास" मेँ भाषा और साहित्य का आलोचनापरक विकास प्रदर्शित किया है। उन्होँने स्वदेशी साहित्य की महिमा का गुणगान किया है।
आचार्य शुक्ल के लगभग एक दशाब्दी बाद आचार्य [[हजारी प्रसाद द्विवेदी]] ने "हिन्दी साहित्य की भूमिका" प्रस्तुत की। इसमेँ आचार्य द्विवेदी ने परम्परा का महत्व स्थापित करते हुए उन धारणाओँ का खण्डन किया, जो युगीन प्रभाव के एकाँगी दृष्टिकोण पर आधारित थीँ। "हिन्दी साहित्य की भूमिका" के अनन्तर आचार्य द्विवेदी की "हिन्दी साहित्य: उदभव और विकास", "हिन्दी साहित्य का आदिकाल" आदि इतिहास सम्बन्धी रचनाएँ प्रकाशित हुईँ। हिन्दी साहित्य के इतिहास को विशेषत: मध्यकालीन काव्य के स्रोतोँ व पूर्व परम्पराओँ के अनुसँधान तथा उनकी अधिक सहानुभूतिपूर्ण व यथातथ्य व्याख्या करने की दृष्टि से आचार्य द्विवेदी का योगदान अप्रतिम है। आचार्य शुक्ल की अनेक धारणाओँ और स्थापनाओँ को सबल प्रमाणोँ के आधार पर उन्होँने खण्डित किया है। निष्कर्ष रूप मेँ जहाँ द्विवेदीजी ने परम्परा पर बल दिया है, वहाँ आचार्य शुक्ल ने युग-स्थिति पर, अत: दोनोँ विद्वानोँ के मत परस्पर पूरक हैँ।
आचार्य द्विवेदी के साथ-साथ ही इस क्षेत्र मेँ डा० [[रामकुमार वर्मा|डा० रामकुमार वर्मा]] अवतरित हुए। इनका "हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास" सन १९३८ ई. मेँ प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ मेँ सँ० ७५० से १७५० विक्रमी तक की कालावधि को ही ग्रहण किया गया है। डा० वर्मा ने इतिहास को सात वर्गोँ मेँ विभक्त किया है। उन्होँने स्वयँभू को हिन्दी का पहला कवि मानते हुए हिन्दी साहित्य का आरम्भ सँ० ७५० विक्रमी से स्वीकार किया है। काल-विभाजन एवँ नामकरण करने मेँ आचार्य शुक्ल का अनुसरण किँचित परिवर्तन के साथ किया है। अनेक कवियोँ के काव्य-सौन्दर्य का आख्यान करते समय डा० वर्मा की लेखनी काव्यमय हो उठी है। शैली की सरसता एवँ प्रवाहात्मकता के कारण इनका इतिहास लोकप्रिय हुआ है।
सन १९३५ मेँ डा० गणपतिचन्द्र गुप्त ने "हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास" लिखा। डा० सुमनराजे इन्हेँ साहित्य मेँ वैज्ञानिक पद्धति का अनुसँधाता एवँ प्रयोक्ता मानती हैँ। डा० गुप्त ने हिन्दी के प्रथम कवि के रूप मेँ "भरतेश्वर बाहुबली" के रचयिता शालिभद्र सूरि को मान्यता दी है। वे बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो आदि को १३५० ई. के पूर्व की रचना मानते हुए भी विकास-क्रम मेँ मध्यकाल की निश्चित सीमा स्वीकार करते हैँ। जिससे इसमेँ चरितकाव्योँ का निर्णय, सूफी काव्य परम्परा और नाथपँथ का समुचित विवेचन नहीँ हुआ है। स्वातँत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य को सही पृष्ठभूमि नहीँ उपलब्ध हो पायी है।