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Kavita Kosh से
मैं मुसाफिर ही रहूँगा उसने एसा क्यूँ कहा
एक दिन मैं ढूंड लूंगा अपनी मंजिल मंज़िल का पता
दौड़ कर उसका चिपटना मेरी बाहें थामना