भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
ग़ैर के घर में टहलती है कहो कैसे हँसूं
करके ईमानों को बेघर बेईमानी आजकल
शान से महलों में पलती है कहो कैसे हँसूं
ज़िन्दगानी हाथ मलती है कहो कैसे हँसूं