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अंतिम आलोक / अज्ञेय

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देखी उस अरुण किरण ने
कुल पर्वत-माला श्यामलश्यामल—
बस एक शृंग पर हिम का
था कम्पित कंचन झलमल ।
प्राणों में हाय पुरानी
क्यों कसक जग उठी सहसा ?
वेदना-व्योम से मानोमानो—
खोया-सा स्मृति-घन बरसा !
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