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Kavita Kosh से
हाथ मेज के तले पसारे
बैठीं भ्रस्ट भ्रष्ट कुर्सियाँ
उत्पीडन की बढती जातीं
रोज-ब-रोेज रोज अर्जियाँ
कई दशक से लम्बित वादों
कितने और फासले
अवलोकित हो रहीं प्रगति की
फर्जी सारणियाँ बरसाती
बरसाती पानी के संग-संग बही हजारेंा हजारों सड़कें
लँगड़ी लूली हुयी व्यवस्था
निजी स्वार्थ में पड़ के
होतीं पत्रावलियाँ