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|रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
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हम बंजारे
मारे-मारे
फिरते-रहते
गली-गली

जलती भट्ठी
तपता लोहा
नए रंग ने
है मन मोहा
चाहें जैसा
मोड़ें वैसा
धरे निहाई
अली-बली

नए-नए-
औज़ार बनाएँ
नाविक के
पतवार बनाएँ
रही कठौती
अपनी फूटी
खा भी लेते
भुनी-जली

राहगीर मिल
ताने कसते
हम हैं फिर भी
रहते हंसते
अभी आपका
समय सहारा
जो सुन लेते
बुरी-भली
</poem>
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